1- मोहम्मद गोरी की कहानी । जब गुजारत की रानी से डर कर भाग गया था |
जंग का मैदान था, सन था 1178, गुजरात के सोलंकी राजा अजयपाला की मृत्यु को 7 साल हो चुके है सिंघासन पर बैठा है उनका 8-10 साल का पुत्र। और राजधानी के करीब 40 किलोमीटर पर मोहमद गोरी अपनी सेना के साथ शिविर लगाये, मुल्तान को फ़तह करने के बाद ,गुजरात को लूटने के मंसूबे पाले बैठा है। तभी गोरी का एक सन्देश वाहक आता है और फरमान सुनाता है, की रानी और बालक के साथ राज्य का सारा धन उसे दे दो तो वो बिना खून खराबे के लौट जायेगा।
रानी नैकिदेवी, जो कदमबा (गोवा) की राजकुमारी और गुजरात की रानी थी, ने सन्देश वाहक को, ये शर्त मान लेने का आश्वाशन देकर वापस भेज देती है।सन्देश वाहक जैसे ही गोरी को ये बताता है, की उसकी शर्ते मानली गई है, गोरी ख़ुशी से झूम उठता है।पर ये क्या अचानक, उसेअपने खेमे की तरफ़ घोड़े और हाथियों के झुण्ड के आने की आवाज़ आती है।आसमान में उडती धूल ये बताने के लिए काफी है, की सोलंकी साम्राज्य की रानी अपना गुजरात इतनी आसानी से नही देगी।अभी गोरी कुछ समझ ही पाता की, रानी नैकिदेवी की सेना मलेच्छो पर टूट पड़ती है,दोनों हाथो में तलवार लिए रानी नैकिदेवी, मलेछो के सर धड से अलग करती चली जाती है,तभी उसकी तेज़ धार की तलवार का सामना गोरी से हो जाता है, कुछ इतिहास कारो का कहना है की रानी ने उसके अग्रभाग पर हमला कर उसके आला ए तनाशुल को घायल कर दिया था।
उसके बाद रक्तरंजित गोरी अपना घोडा लेकर सीधे मुल्तान की तरफ भागा, और उसने अपने सैनिको को बोल दिया था की रास्ते में कही नही रुकना है, मुल्तान भागते समय, उसका घोडा अगर गश खाकर ज़मीन पर गिर जाता था, तो गोरी घोडा बदल लेता था, पर रुकता नही था।
उसके बाद गोरी में इतना खौफ बैठ गया, की फिर उसने दिल्ली पर तो वार किया पर कभी गुजरात की तरफ नही देखा।
नैकिदेवी की गाथा, इतिहास में कही दफन रह गई, पर भारतीय नारीयो को स्वाभिमान से जीना सीखा गई।
2-मनपसंद दीपक , एक राजकुमारी के स्वयंवर’ की कहानी |
इस कहानी की शुरुआत होती है एक राजा से जो बहुत ही दयावान और प्रजाप्रिय था । उसकी एक बेटी थी । वह बहुत ही सुन्दर और बुद्धिमान थी। राजकुमारी जब बड़ी हुई तो राजा को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। राजकुमारी के लिए वर ढूंढने से पहले राजा ने राजकुमारी की राय जाननी चाही।
राजकुमारी ने काफी सोच विचार कर अपने पिता से कहा – पिता जी ! जो व्यक्ति मेरी पसंद का दीपक ला देगा मै उसी से विवाह करूंगी।
अगले दिन राजा ने राजकुमारी की शर्त के साथ स्वयंवर की घोषणा कर दी। स्वयंवर का दिन आ गया , हाथ में दीपक लिए हुए युवकों की कतार लग गई । वह भी बहुत ही लंबी कतार। कोई युवक राजकुमार था तो कोई नगर सेठ, कोई साहूकार था तो कोई साहसी बहादुर। सबके पास तरह तरह के दीपक थे । छोटे – बड़े , सोने – चांदी के हीरे – जवाहरात के जगमगाते सुन्दर नक्काशी वाले दीपक ।
राजकुमारी सबके दीपक देखती हुई कतार के अंत तक जा पहुंची मगर अबतक उसको मनपसंद दीपक नहीं मिला । लेकिन कतार के अंत में खड़े युवक के हाथ में कोई दीपक नहीं था । राजकुमारी ने उस युवक से पूछा – आप अपने साथ दीपक नहीं लाए ?
युवक ने दाए बाए देखा , थोड़ी सी गीली मिट्टी उठाकर एक गोला बनाया और फिर उसे बाए हाथ में लेकर उसने अपने दाए कुहनी से दबा दिया । मिट्टी का दीपक तैयार हो गया ।राजकुमारी ने मुस्कुराकर वरमाला उस युवक के गले में डाल दी।
दोस्तो ! दीपक का काम प्रकाश से देना है फिर चाहे वह सोने का हो या मिट्टी का। जिस समय प्रकाश की जरूरत हो तब क्या हम सोने या चांदी के दीपक को ढूंढने अथवा खरीदने निकलेंगे ?
राजकुमारी को दीपक की जरूरत नहीं थी । दरअसल वह तो सिर्फ प्रतिभा और दूरदर्शिता की परीक्षा ले रही थी।
3-‘दृढ़ निश्चय का फल – महर्षि पाणिनि की कहानी
दोस्तो आज मै आपको बहुत ही अच्छी कहानी बताने जा रहा हूं जिसे पढ़ कर आपका मन खुशी और प्रेरणा से भर जाएगा।
बहुत पुरानी बात है एक जंगल एक गुरुकुल था जिसमें बहुत सारे बच्चे पढ़ने आते थे। एक बार की बात है ,गुरूजी सभी विद्यर्थियों को पढ़ा रहे थे मगर एक विद्यार्थी ऐसा था जिसे बार बार समझाने पर भी समझ में नहीं आ रहा था। गुरूजी को बहुत तेज से गुस्सा आया और उन्होंने उस विद्यार्थी से कहा – ‘ जरा अपनी हथेली तो दिखाओ बेटा । विद्यार्थी ने अपनी हथेली गुरूजी के आगे कर दी। हथेली देखकर गुरूजी बोले – बेटा ! तुम घर चले जाओ ,आश्रम में रहकर अपना समय व्यर्थ मत करो तुम्हारे भाग्य में विद्या नहीं है ।
शिष्य ने पूछा – क्यों गुरूजी?
गुरूजी ने कहा – तुम्हारे हाथ में विद्या की रेखा नहीं है ।गुरूजी ने एक दूसरे विद्यार्थी की हथेली उसे दिखाते हुए बोले – यह देखो ! यह है विद्या की रेखा । यह तुम्हारे हाथ में नहीं है । इसलिए तुम समय नष्ट ना करो , घर चले जाओ । वहां अपना कोई और काम देखो ।विद्यार्थी ने अपनी जेब से चाकू निकाल, जिसका प्रयोग वह दातुन काटने के लिए किया करता था । उसकी पैनी नोक से उसने अपने हाथ में एक गहरी लकीर बना दी । हाथ लहूुहान हो गया । तब वह गुरूजी से बोला – मैंने अपने हाथ में विद्या की रेखा बना दी है, गुरूजी। यह देखकर गुरूजी द्रवित हो उठे और उन्होंने उस विद्यार्थी को गले से लगा लिया ।गुरुजी बोले – तुम्हे विद्या सीखने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती ,बेटा! दृढ़ निश्चय और परिश्रम हाथ की रेखाओं को भी बदल देते है ।
वह विद्यार्थी आगे चलकर ‘ महर्षि पाणिनि’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जिसने विश्व प्रसिद्ध व्याकरण ‘ अष्टाध्याई ‘ की रचना की । इतनी सादिया बित जाने पर भी विश्व की किसी भी भाषा में ऐसा उत्कृष्ट और पूर्ण व्याकरण का ग्रंथ अब तक नहीं बना
4-सच्चा सुख – भक्त प्रहलाद और दानव की कहानी
बहुत पुरानी बात है। एक बार भक्त प्रहलाद से दानवों ने पूछा – हे प्रहलाद ! सच्चा सुख कैसे प्राप्त होता है?
यह सुनकर भक्त प्रहलाद हस पड़े । फिर उन्होंने बोला – सच्चा सुख पाना बहुत ही कठिन है। यह तुम्हारे लिए असंभव है। क्योंकि तुम सच्चा सुख पाने वाले मार्ग पर नहीं चल सकते ।
दानवों ने सच्चे सुख के मार्ग को बताने के लिए भक्त प्रहलाद से बार बार आग्रह किया तो प्रहलाद ने बोला – जन कल्याण के द्वारा ही सच्चा सुख प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु तुम लोग यह नहीं कर सकते क्योंकि तुम लोगो अपना बचपन खेल कूद और शैतानियों में गुजारे हो। युवा होने पर भोग तृष्णा में पाप करते हो और वृद्धावस्था में तुम्हारे पास पछताने के अलावा कुछ नहीं बचता है। सच्चा सुख तो कल्याण कार्यों के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। इसी में आत्मानंद और परमानंद प्राप्त होता है।।
प्रहलाद ने फिर उन दानवों से कहा – मै भी तो एक दानव राज ही हूं परन्तु मै जनकल्याण में लगा हूं। ईश्वर पर भरोसा करता हूं। इसलिए सुखी हूं। तुम लोग भी ऐसा कर लो तुम्हारा भी कल्याण हो जाएगा।
याद रखो ! किसी भी उम्र में प्रभु सुमिरण तथा दुष्कर्मों का त्याग कर के उनका प्रायश्चित कर लेने से सदमार्ग साफ दिखाई देता है। उस पर चलते रहने से गुरुकृपा होती है तब जाके सच्चा सुख मिलता है।
प्रहलाद की इन बातो को सुनकर उन दानवों ने संकल्प लिया की जीवन का जो बचा हुआ भाग है उसे व्यर्थ ना कर के जनकल्याण में समर्पित कर सच्चा सुख प्राप्ति वाले मार्ग पर चलेंगे।
5-परमात्मा पर भरोसा- एक राजा की कहानी
एक राजा था। उसका एक मंत्री था , जिसका नाम जय सिंह था। वह बहुत बुद्धिमान तथा समझदार था।
एक बार राजा के राज्य पर साथ वाले राज्य ने आक्रमण कर दिया। वह बहुत दुखी हुआ। वह अपनी जान बचाने के लिए गुप्त मार्ग से अपने मंत्री के साथ जंगल में पहुंच गया । उसके मंत्री को चाहे कोई दुख हो या सुख हो वह हमेशा यही कहता कि परमात्मा जो करता है अच्छा ही करता है। परंतु राजा को यह बात अच्छी ना लगती । इसलिए जब भी वह मंत्री के मुख से यह बात सुनता तो जल भुन जाता । अब जब मंत्री और राजा अपनी जान बचाकर जंगल में पहुंचे तो मंत्री मन ही मन परमात्मा को धन्यवाद दे रहा था। उसने राजा से कहा- राजन! घबराने की क्या जरूरत है ,ईश्वर पर भरोसा रखो वह जो भी करता है अच्छा ही करता है ।हमारी पराजय का कोई भेद होगा। जो हमें अभी तक पता नहीं चल रहा है। राजा इस आशापूर्ण उत्तर से जल भुन गया । उसने मंत्री से कहा- तुम्हारा परमात्मा कितना निर्दयी है उसने मेरा राजपाट ताज- तख्त सभी कुछ मुझसे छीन लिया।
बातें करते काफी समय बीत गया। अंधेरा छाने लगा और फिर वर्षा भी होने लगी। मौसम में एकदम ठंड छा गई। उन्हें सर्दी पीड़ा दे रही थी। उन्होंने आग जलाई परंतु बौछार के साथ ही वह भी बुझ गई । तभी राजा फिर भड़क कर मंत्री से कहा- तुम्हारा भगवान कितना निर्दयी है। उसे हम पर जरा भी तरस नहीं आता। इतने में उन्हें घोड़ों के टापू का स्वर सुनाई दिया। सिपाही घोड़ों पर बैठकर उनकी तरफ आ रहे थे। दुश्मनों के सिपाहियों को देखकर राजा का बुरा हाल हो रहा था । लेकिन अंधेरा होने के कारण राजा और मंत्री के घोड़े दिखाई ही नहीं दिए । तभी उनमें से एक ने कहा – जल्दी ढूंढो वह यहीं कहीं छुपे होंगे। दूसरे ने कहा – जल्दी करो कल उन दोनों को फांसी दे दी जाएगी और हमें बहुत सारा इनाम मिलेगा। लेकिन वे सैनिक राजा और मंत्री को ना ढूंढ सके और अपना सा मुंह लेकर वापस चले गए।
इस तरह राजा और मंत्री की जान बच गई। तभी मंत्री ने राजा से कहा महाराज अब तो आपको ईश्वर पर भरोसा हो गया होगा कि परमात्मा जो भी करता है अच्छा ही करता है। यदि भगवान की कृपा से वर्षा न होती तो सिपाही आग की रोशनी में हमें ढूंढ लेते और कल हमें फांसी हो जाती। अब राजा अपने समझदार भक्त मंत्री की बातें सुनकर बहुत प्रभावित हुआ । अब उसे परमात्मा पर विश्वास हो गया उधर उसके राज्य में अचानक प्राकृतिक आपदाएं आई। राजमहल में बैठा दुश्मन राजा महल के मलबे में दबकर ही मर गया। चारों ओर हाहाकार मच गई। उधर मंत्री और राजा दोबारा अपने राज्य में चले गए बिना लड़े भेड़े ही उन्हें राज्य पुनः प्राप्त भी हो गया।