एक नगर में रामदास नाम का एक व्यक्ति रहता था। वह बहुत ही मेहनती एवं ईश्वर में आस्था रखने वाला व्यक्ति था । वह जब भी कोई कार्य करता और उसका कार्य सफल हो जाता तो वह हमेशा ईश्वर को धन्यवाद देता रहता था। क्योंकि उसे लगता था कि उसकी सफलता के पीछे भगवान का हाथ है।
रामदास कठिन परिश्रम करके धीरे-धीरे एक बहुत ही बड़ा व्यापारी बन गया। कुछ समय बीतने के बाद रामदास के पास धन दौलत की कमी नहीं गई। वह बहुत ही ज्यादा धनवान हो गया और अब उसे अपने ऊपर घमंड भी हो गया था। वह सोचता था कि वह अपने कठिन परिश्रम की वजह से सफल हुआ है। इसमें भगवान का कोई हाथ नहीं है। यही सोच कर के रामदास धीरे-धीरे भगवान में आस्था रखना खत्म कर दिया और भगवान की पूजा करनी भी छोड़ दी।
एक बार की बात है रामदास के घर कुछ मेहमान आए हुए थे और मेहमानों के बीच भगवान को लेकर बहस होने लगी। रामदास बोला– “मैं भगवान को नहीं मानता हूं! क्योंकि भगवान है ही नहीं! मैं आज जो भी हूं सब अपनी परिश्रम के बल पर हूं! अगर यदि आप लोग कहते हैं, भगवान हैं! और वह इतना शक्तिशाली हैं, तो अपने भगवान से कहिए कि मुझे इसी पल जान से मारकर दिखाएं! मैं भगवान को तुम लोगों के सामने चुनौती दे रहा हूं!!!”
उसके घर आए हुए एक संत ने रामदास से कहा– “यदि तुम्हारा बेटा तुमसे बोले कि तुम उसे मार डालो तो क्या तुम अपने बेटे को मार डालोगे??”
रामदास ने तुरंत कहा– “नहीं!! मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं अपने ही बेटे को कैसे मार सकता हूं!!”
तब उस संत ने जवाब दिया– “भगवान हमारे पिता के समान है! इसलिए वह अपना अस्तित्व दिखाने के लिए अपने बच्चो को जान से कभी नहीं मारेंगे। तुम इतने सफल हुए हो, तुम्हारी सफलता के पीछे भगवान का ही आशीर्वाद है।”
संत की बातें सुनकर रामदास की आंखें खुल गई और उसे अपनी गलती का एहसास हो गया। उसने अपना घमंड करना छोड़ दिया और फिर से ईश्वर में आस्था रखने लगा।